ब्रह्मा, विष्णु , महेश — इन त्रिदेवों में से एक देव महेश, जिन्हें संहार का देवता माना जाता है। जिन्हें देवो के देव महादेव, शंकर , भोलेनाथ, शिव , रूद्र, नीलकंठ, गंगाधर – इत्यादि के नामों से भी जाना जाता है, उन भगवान् भोलेनाथ को हमारा कोटि कोटि नमस्कार !

जिस प्रकार इस ब्रह्माण्ड का ना तो कोई अंत है, ना कोई आरम्भ और ना ही कोई छोर है। उसी प्रकार देवों के देव भगवान् शिव भी अनादि है। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भगवान् शिव के अंदर समाया हुआ है। जब कुछ नहीं था तब भी शिव ही थे, जब कुछ ना होगा , तब भी भगवान् शिव ही होंगे।
शिव को “महाकाल” कहा जाता है अथार्त “समय” ! अपने इसी स्वरूप के द्वारा शिव इस पूर्ण सृष्टि का भरण पोषण करते है। भगवान् शिव अधिकतर चित्रों में एक योगी के रूप में देखे जाते है परन्तु उनकी पूजा “लिंग” रूप में की जाती है। “लिंग” को भगवान् शिव के रूप में देखा जाता है और उसी की पूजा अर्चना की जाती है तथा उनका दूध से अभिषेक किया जाता है।
– संस्कृत भाषा में “लिंग” का अर्थ है “चिन्ह”. तो शिवलिंग का अर्थ है शिव का प्रतीक ! शिवलिंग भगवान् शिव और देवी शक्ति अथार्त माता पार्वती का आदि अनादि एकल स्वरूप है तथा पुरष और स्त्री की समानता का भी प्रतीक है। अथार्त यह इस बात का प्रतीक है की इस सृष्टि में पुरष और स्त्री दोनों समान है। शून्य, आकाश, अनंत, ब्रह्माण्ड, निराकार, परम् पुरष का प्रतीक होने के कारण ही इसे “लिंग” कहा जाता है।

हिन्दू धर्म में अन्य देवी देवताओं की पूजा मूर्ति रूप में की जाती है। परन्तु वहीं भगवान् शिव की पूजा “शिवलिंग” के रूप में की जाती है। शिवमहापुराण के अनुसार इस कलियुग में मनुष्य के कल्याण के लिए शिवलिंग पूजन सर्वश्रेष्ठ साधन है। इसी कारण पुरे भारत वर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग के दर्शन और उनका अभिषेक मोक्ष प्रदान करने वाला माना गया है।
अब प्रश्न उठता है की भगवान शिव के प्रतीक “शिवलिंग” की उत्त्पति कैसे हुई ? यह शिवलिंग कहाँ से आया ? इस विषय में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित है।
“लिंगमहापुराण” नामक ग्रन्थ में शिवलिंग की उत्त्पति और स्थापना का बहुत ही सूंदर वर्णन मिलता है। “लिंगमहापुराण” के अनुसार एक समय भगवान् ब्रह्मदेव और भगवान् विष्णु के बीच यह विवाद छिड़ गया की उन दोनों में सर्वश्रेष्ठ कौन है ? ब्रह्मदेव सृष्टि के रचयिता होने के कारण स्वयं को श्रेष्ठ होने का दावा कर रहे थे , वहीँ दूसरी और भगवान् विष्णु पूरी सृष्टि के पालनकर्ता के रूप में स्वयं को श्रेष्ठ बता रहे थे।
जब उन दोनों देवताओं का विवाद चरम सीमा पर पहुँच गया तब अग्नि की ज्वालाओं से लिपटा हुआ एक विशाल लिंग उन दोनों देवो के बीच आकर स्थापित हो गया। तब उन दोनों देवताओं ने यह निश्चय किया की जो भी इस विशाल लिंग के छोर का पता लगा लेगा वही देव सर्वश्रेष्ठ देव होगा।

अब वे दोनों ही उस लिंग का छोर मालूम करने में जुट गए। भगवान ब्रह्मदेव उस लिंग के ऊपर की और बढ़े और भगवान विष्णु उस लिंग के नीचे की और जाने लगे। बहुत वर्षो तक वे दोनों देवता उस लिंग का रहस्य मालूम करने में जुटे रहे परन्तु वे उस लिंग का छोर ना पा सकें। और इस प्रकार कई वर्ष बीत गए और अब उन देवताओं को यह एहसास हुआ की यह लिंग अनंत काल है , जिसका ना तो कोई आरम्भ है और ही कोई अंत है।
अंत में अपनी हार स्वीकार कर वे दोनों देवता वहीँ आ गए जहाँ उन्होंने उस लिंग को देखा था। वे दोनों जैसे ही वहां पहुंचे तो उन्हें वहाँ “ॐ ” का स्वर सुनाई दिया। “ॐ ” की उस पवित्र ध्वनि को सुनकर वे दोनों देवता समझ गए की यह लिंग कोई साधारण लिंग नहीं बल्कि यह कोई परम् शक्ति है।
अब वे दोनों देवता वहीँ समाधि लगा कर “ॐ ” के स्वर का जाप करने लगे। कुछ समय के पश्चात भगवान् शिव उन दोनों देवताओं की इस भक्ति से प्रसन्न हुए और वह उस लिंग से अचानक ही प्रकट हो गये। प्रसन्न हो कर भोलेनाथ शिव ने उन देवताओं को सद्बुद्धि का वरदान दिया। दोनों देवताओं को वरदान देकर भगवान् शिव वहां से अंतरध्यान हो गए और वहीं एक शिवलिंग के रूप में स्थापित हो गए।
पुराणों के अनुसार वही शिवलिंग जिसमे से भगवान् शिव प्रकट हुए थे , वही भगवान् शिव का प्रथम शिवलिंग माना जाता है। सर्वप्रथम भगवान् ब्रह्मदेव और भगवान् विष्णु ने उस शिवलिंग की पूजा अर्चना की। और उसी समय से इस संसार में भगवान शिव की पूजा लिंग के रूप में की जाने लगी।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक समय भगवान् शिव अपनी चेतन अवस्था में नहीं थे और दारू नामक एक वन में वह निर्वस्त्र होकर भटक रहे थे। उसी वन में कुछ स्त्रियाँ लकड़ियाँ चुन रही थी। जब उन स्त्रियों ने भगवान् शिव को निर्वस्त्र अवस्था में देखा तो वे भयभीत होकर इधर उधर भागने लगी।
उसी समय कुछ ऋषि मुनि वहां पहुंच गए और भगवान् शिव को उस अवस्था में देख कर उन्होंने श्राप दिया “
“हे वेद मार्ग को लुप्त करने वाले, में तुम्हें श्राप देता हूँ , तुम्हारा यह लिंग कट कर पृथ्वी पर गिर जायेगा “
ऋषि के ऐसा श्राप देते ही भगवान् शिव का लिंग कट कर वहीँ पृथ्वी पर गिर पड़ा और अग्नि के समान जलने लगा । उस जलते हुए लिंग के कारण उस सम्पूर्ण सृष्टि में त्राहि त्राहि मच गयी। यह देख कर ऋषि मुनि बहुत दुखी हुए और ब्रह्मदेव के पास सहायता मांगने के लिए पहुँच गए। ऋषि मुनियो को दुखी देख कर ब्रह्मदेव ने कहा :
“इस ज्योतिर्लिंग को देवी पार्वती के अतिरिक्त कोई और धारण नहीं कर सकता। इसलिए तुम सब देवी पार्वती के पास जाओ “
यह सुनकर सभी ऋषि मुनियो ने देवी पारवती की स्तुति की, तब ऋषियों की प्रार्थना सुन कर देवी पार्वती ने उस ज्योतिर्लिंग को अपने शरीर में धारण कर लिया। तभी से ऐसा माना जाता है की शिवलिंग के नीचे पार्वती माता का भाग विराजमान रहता है और शिवलिंग की हमेशा आधी परिक्रमा की जाती है। और उसी समय से “ज्योतिर्लिंग” की पूजा तीनो लोकों में प्रसिद्द हुई।
इन “ज्योतिर्लिंग” की पूजा, अर्चना और अभिषेक अत्यधिक पुण्यदायी माना गया है। भगवान् शिव के प्रतीक “शिवलिंग” का अभिषेक दूध , जल और बेलपत्र से किया जाता है। शिवलिंग की पूजा कर मनुष्य भगवान् शिव की कृपा को सहज ही प्राप्त कर लेता है।
जय भोलेनाथ , जय भोलेनाथ जय भोलेनाथ , जय भोलेनाथ